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सन् 2007 में जब गीता संकल्प यात्रा का प्रारंभ सौजन्या सामाजिक संस्था द्वारा किया गया तो उस वक्त तक गीता जो एक अनमोल ग्रंथ है मैंने न पढ़ा था न ही मेरे पास पुस्तक थी । मैं बहुत कृतज्ञ हूं आदरणीय उमा दी से जिन्होंने इस महान ग्रंथ से मेरा परिचय कराया । उनके साथ मैं भी कुछ सीख पाऊं इसे मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ ।
"जीवन न तो भविष्य में है न अतीत में , जीवन तो बस इस पल में है ।"
-श्रीमद भगवद गीता
श्रीमद्भागवत गीता यह एक ग्रंथ ही नहीं अपितु अपने आप में जीवनपुंज है । जीवनपुंज अर्थात जीवन को प्रकाशित करने का एक व्यवस्थित स्त्रोत । आज की व्यावहारिक जीवनशैली में जो भाव , जो उद्देश्य चाहिए वो सम्पूर्ण रूप से इस ग्रंथ में परिभाषित है । व्यक्ति की कार्य को लेकर एवं कार्य को निर्धारित करने वाली हर वो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिस्थिति की परिभाषा एवं उद्देश्य इसमे पाया जा सकता है । कर्म, धर्म मे निहित है या धर्म, कर्म में निहित है इन विरोधाभासों को भी गीता हल करती है । कथा- प्रवचनों से लेकर घर-घर तक जीवन-सुधार परक उपदेश , नीति-नियमों का जो भी ज्ञान दिया जाता है , उसमें गीता का प्रकाश कहीं न कहीं अवश्य पड़ता है । धरती पर शायद ही ऐसा कोई स्थान हो जो गीता के प्रभाव से मुक्त हो ।
महाभारत से पूर्व शंका एवं त्रुटियों से भरा अर्जुन कैसे अपने कर्म और धर्म के भेद को समझ पाये । इसी परिलक्ष्य में श्रीकृष्ण द्वारा स्वरचित और कंठित इस 18 अध्याय वाली महागीत को गीता के रूप में हम सभी नमन करते हैं । समय का खेल देखिये, सतयुग में दो लोकों में युद्ध होता है , त्रेता में दो साम्राज्यों के प्राणी राम-अयोध्या , रावण-लंका में युद्ध होता है । द्वापर में दो परिवार युद्ध करते हैं । युगों के साथ ही युद्ध करने वालों की आसन्नता या निकटता देखी जा सकती है । आज मानव स्वयं से लड़ रहा है और सही-गलत , अच्छा-बुरा भेद कर पाना दुर्गम है क्योंकि आज कोई भी चरित्र किस पाले में आता है इसका निर्णय करना अत्यंत कठिन है । गीता, महाभारत की परिस्थिति में ही नहीं बल्कि आज की परिस्थिति में भी बहुत उपयोगी है । आज हम सभी उस अर्जुन की तरह जीवन रूपी महाभारत के समक्ष हैं परंतु आज श्री कृष्ण अपने रूप में भले ही न हों परंतु स्वर और ज्ञान स्त्रोत हमारे पास उपलब्ध हैं । दूसरे अध्याय की कर्म परिभाषा से लेकर मोक्षप्राप्ति के मार्गों का विश्लेषण करने वाले अंतिम अध्याय तक , गीता जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती है । हम आज जिन आसक्तियों से घिरे हैं मोह, बंधन, विलास, भोग, पाखंड, ईर्ष्या, लोभ, इनके प्रमुख हैं और गीता के छठे, चौदहवें एवं सोलहवे अध्याय इतनी बारीकी से इसपर अध्ययन करते हैं कि कोई गूढ़ विचारक भी पढ़ने पर आश्चर्यचकित एवं अभिभूत हो जाये। विशेषकर कई पश्चिमी एवं गैर भारतीय चिंतक जो गीता से अनिभिज्ञ हैं वो जब गीता का पाठ करते हैं तब उनकी वैचारिक सुंदरता और भी बढ़ जाती है ।
गीता के अनुसार जो मनुष्य निरंतर आत्मभाव में स्तिथ सुख-दुख को समान समझे , मिट्टी-पत्थर-स्वर्ण में अंतर न करे , ज्ञान , प्रिय तथा अप्रिय को एक सा माने और अपनी निंदा हो या स्तुति उसमे भी समान भाव रखे , जो मान-अपमान में सम रहे , मित्र-गैर मित्र में भी सम है और अभिमान रहित है वह ईश्वर को अतिशय प्रिय है। ऐसे झकझोरने वाले प्रामाणिक सत्य हमे आज के जीवन मे संतुलन का पाठ पढ़ाते हैं। आज व्याप्त अनेक वैचारिक मापदंडों में गीता जैसा ध्यानयोग का गहन अध्ययन नहीं मिलता।
कर्मयोग केवल मानव जीवन पर लागू है ऐसी मेरी पूर्व धारणा थी परंतु गीता का तीसरा अध्याय पढ़ते ही पता चला कि कर्म प्रकृति का मूल है। संसार का कोई भी जीव बिना कर्म के अस्तित्व हीन है। कर्म से कोई आलसी भी छुटकारा नहीं पा सकता। कर्म इतना मूल है कि खुद ईश्वर भी स्वयं को कर्म से भिन्न नहीं कर सकते। कर्म का सूत्र न केवल जीवित पर अपितु निर्जीव पे भी सर्वथा अनिवार्य है। पंचतत्व(अग्नि, जल, वायु, भू, आकाश) का कर्मयोग एवं प्रकृति का दोहन करने वाले का कर्मयोग, जब दोनों एक दूसरे को संतुलित रखते हैं तभी परमात्मा का उद्देश्य पूर्ण होता है।
भगवान श्री कृष्ण आत्मा और जीव के बीच अद्भुद अंतर बतलाते हैं जिससे आज का कोई भी अंतरिक्ष वैज्ञानिक से नकार नहीं सकता। वस्तुतः आत्मा कुछ नहीं शक्ति है ऊर्जा है जिससे सारा ब्रह्माण्ड संचालित होता है और सभी द्रव्यों और पदार्थों का मूल है। मनुष्य एवं सभी प्राणी उसी शक्ति का अंश हैं। मनुष्य हो या कोई भी प्राणी , प्राण नष्ट होने पर आत्मा नष्ट हो ही नहीं सकती चाहे वो भूमि में जाये , अग्नि में या जल में , उसका केवल स्थानांतरण होता है केवल। वैज्ञानिक प्रमाणिकता की बात करे तो ऊर्जा को द्रव्य में या द्रव्य को ऊर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं। जैसे ऊर्जा न तो पैदा होती है ना मरती है बस रूप बदल लेती है उसी प्रकार गीता में भी आत्माको ऐसा बताया गया है। हमनें गीता के उस पहलू को भी शायद कभी नहीं जाँचा जिसमें ईश्वर के स्वरूप की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गयी है, वह भी स्वयं ईश्वर के द्वारा। ईश्वर को शक्ति मानकर उन्होंने कहा है कि मैं सबमें हूं, सभी विनाश होने पर मुझमें ही आ मिलते हैं। अगर गीता के वैचारिक मंथन को हम गहरायी से अध्ययन करें तो वर्तमान विज्ञान और गीता के कई मूल्यों में सापेक्षता का मिलना विलक्षणीय है। व्यक्तियों के अंदर पाये जाने वाले जो दुर्गुण गीता ने अपने सोलहवें अध्याय में व्यक्त किये हैं उनका आज स्वरूप विस्तृत हो गया है। महाभारत में पांडव केवल पाँच भाई नहीं अपितु पाँच इन्द्रियाँ हैं और कौरव उनका ध्यान खींचने वाले सौ कारण। आज का युद्ध हमारी इन्द्रियों और उनका ध्यान भटकाने वाले कारणों के बीच है। आज के युग में कर्ण का चरित्र हमारी महत्वकांक्षाओं को दर्शाता है जिसका अंत किये बिना हम युद्ध नहीं जीत सकते। परमात्मा तक पहुंचने के लिए एक विरक्त कर्मयोगी बनना पड़ता है। जैसे कमल कीचड़ में रहकर खिलता है वैसे ही हमें चहुँओर विराजमान ध्यानाकर्षण रूपी कौरवों से लड़ना पड़ता है।
भगवान वासुदेव कहते हैं कर्म फल का हेतु मत हो तथा कर्म न करने का तेरी आसक्ति न हो। कर्म का तात्पर्य अर्थात दृष्टिकोण को ज़रूर ध्यान रखना है। यहां बहुत महीन अंतर है, फल की चिंता न करना और कर्म का तात्पर्य (कारण) य3 दोनों एक ही लगती है पर इनमें गहरा अंतर्विरोध है। कर्म का तात्पर्य न होने से कर्म करने की इच्छा और शक्ति क्षीण हो जाती है। अर्जुन को धर्म की स्थापना करनी है ये उसके कर्म का तात्पर्य है। अर्जुन को धर्मस्थापन के बाद युद्ध-विध्वंस, भातृहत्या, गुरुहत्या इत्यादि का पाप लगे या युधिष्ठिर राजा बने यह है कर्म का फल। अर्जुन अपने कर्म फल को लेकर शंका और दुविधा में है परन्तु श्री कृष्ण उसे कर्म का तात्पर्य का मर्म समझाते हैं।
वस्तुतः गीता मेरे लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण दीक्षा है। ज्ञान प्राप्ति का यह सुख गीता को पढ़ने के कर्म का तात्पर्य है और अगर मैं जीवन मैं कुछ श्रेष्ठ कर पायी तो ये मेरे गीता को पढ़ने के कर्म का फल होगा।
गीता मेरे ही नहीं बल्कि समस्त संसार के लिए ब्रह्मज्ञान जैसा है। गीता जीवन संचालन और संतुलन का एक अद्भुत साधन है। हम सभी को इसका अध्ययन आत्मशांति और मोहमुक्ति के लिए जीवन पर्यन्त करते रहना चाहिए।
राधे – राधे
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