The Arts

हे सखी ! आ....

हा:  मृत्यु का ऐसा अपार्थिव  दर्शन ,
न देखा मैंने आज तक कहीं पर 
 अपने क्रूर पंजों से उसने पकड़ा है कितनों को ,
निशाना बनाया है उसने अपना -कई बूढ़े लोगों को ,
इस क्रूर औरत के ह्रदय  में नहीं है दया का लेश  मात्र भी -
नहीं आता है रहम  इसे किसी मासूम बच्चे  पर भी। 
 काला वस्त्र धारण किए आई उस दिन वह ,
एक-एक को ले गई   साथ अपने वह ,
चाहती थी रोकना उसे मैं -चाहती थी सबके संतिर  जाना मैं 
 किंतु देखो मेरी  यह विडंबना -चाह कर भी उसे रोक ना पाई ,
 चाहती थी प्रश्न करना उससे मैं एक -
कौन सुख मिलता है उसे इस आर्तनाद से -
 कौन  मधुर संगीत सुनाई देता है उसे इस क्रंदन  में –

न जाने किस मिट्टी की बनी हुई है वह -
न हँसती ,न  रोती , ना खुश होती ,ना दुखी होती है वह 
 लाती है  अपने साथ हाहाकार- विभीषिका -शोक अपरंपार -
दे जाती है -परिजनों को दुख का  विशाल संसार 
कहीं आमना-सामना हो जाए तो पूछूँ  उससे -
क्या सबके संतिर  एक को ले जाना नहीं है उसे स्वीकार ?
गर संभव हो तो हे सखी ! आ ...  लगकर गले हो जाएँ एकाकार। 
और फिर उस निराकार तम में हो जावें  द्रुत अंतर्ध्यान।

About the author

कुमुद पाठक एक शिक्षिका हैं ।  उन्हें १८ साल से अध्यापन क्षेत्र में पढ़ाने का अनुभव है।  वह स्वरचित पठन एवं लेखन में रूचि रखती हैं । व्यक्त किए गए कोई भी विचार व्यक्तिगत हैं।

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