Life & Well Being

मिशन शक्ति की प्रासंगिकता

आजकल प्रदेश में मिशन शक्ति अभियान के अन्तर्गत जोर-शोर से महिलाओं के लिये कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। हर सरकारी विभाग में महिला अपराधों व यौन शोषण को रोकने हेतु समितियां बनाई जा रही हैं। ऐसे में अनायास ही मन में प्रश्न आता है कि क्या केवल इन्ही कदमों से हम मिशन शक्ति की सफलता का सफर तय कर लेंगे ? क्या केवल महिलाओं को उनके अधिकार बताकर, उनको महिला अपराधों से सम्बन्धित कानून समझाकर या कुछ सम्मानित व प्रतिष्ठित महिलाओं का सार्वजनिक रूप से सम्मानित करके हम महिलाओं की ’’शक्ति’’ जागृत करने में सफल हो जायेंगे  या यह अभियान भी अन्य तमाम अभियानों की तरह सोशल मीडिया या अखबारों/न्यूज चैनलों पर चलकर गायब हो जायेगा ?

मैं एक बेटी, बहू, माँ और शिक्षिका के रूप में अपने जीवन के पन्ने पलटती हूँ तो समझ आता है कि जिस शक्ति को सरकारी अभियान के माध्यम से हम बेटियों और महिलाओं के अन्दर डालना चाहते हैं, वह ऐसे अभियानों से नहीं बल्कि अपने परिवार और विद्यालय से ही शुरूआत से आ सकती है। अपवाद हर जगह होते हैं परन्तु मेरे नज़रिए से परिवार ही हर लड़की की सबसे बड़ी ताकत होता है। यदि आरम्भ से ही परिवार में बेटियों को रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं की गाथा, सीता माता जैसे धैर्य की कहानी और सावित्री जैसे विश्वास की कथाएँ सुनाई जाएँ और इनके साथ ही यह आश्वासन भी दिया जाए कि ऐसी परिस्थितयों में तुम्हारे संघर्ष में हम हर तरह से साथ निभाएँगे, तो ही शायद नारी शक्ति में पुनः नवीन शक्ति का संचार हो पाएगा। अक्सर देखा जाता है कि बेटी को कोई राह चलते छेड़ दे तो माता-पिता को बुरा तो बहुत लगता है पर समाज में झूठी इज्जत बनाए रखने के लिये प्रतिकार नहीं करते हैं और यहीं से बेटी के अन्दर एक नकारात्मक धैर्य धरने की प्रवृत्ति का विकास होने लगता है। धैर्य एक बेहतर गुण है परन्तु कायरता को धैर्य का नाम देना बेमानी है।

विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करते हुए धैर्य रखना एक सकारात्मक पहलू है पर केवल मन मारकर, घुटन के साथ धैर्य धरना नकारात्मक है। एक विडम्बना और है कि शक्ति की गलत परिभाषाएँ विकसित कर ली गई हैं। एक लड़की अगर समाज के नियमों को नहीं मानती , किसी के अधीन नहीं रहती, मनमानी करती है, तो कुछ लोग उसको ही शक्ति का प्रतीक मान लेते हैं पर किसी नियम को ना मानने में कौन सी शक्ति लगती है ? शक्ति का परिचय तो वह महिला देती है जिसके नन्हे-मुन्ने बच्चों को असमय उनका पिता छोड़ जाए और वह महिला अपने बच्चों को समाज के सारे नियमों का पालन करते हुए उसी समाज में स्थापित व्यक्तित्व बना पाए। शक्ति का परिचय वह बेटी देती है, जिसके घर में कोई आमदनी का जरिया ना हो तो भी वह घर से बाहर निकलकर सम्मानपूर्वक अपने परिवार को चला सके। एक बेटी, बहू, पत्नी, माँ सभी रूपों में वह शक्ति का ही तो परिचय देती है और जब नारी इतनी सशक्त है तो क्या जरूरत पड़ गई ’मिशन शक्ति’ की ?

दरअसल दिनों दिन बढ़ते दुष्कर्म व बलात्कार के मामलों को देखते हुये ही शायद सरकार को लगा होगा कि ’मिशन शक्ति’ चलाना चाहिए पर मुझे लगता है कि इस समस्या के समाधान के लिये ’मिशन संस्कार’ या 'मिशन परिवार’ जैसे अभियान चलाए जाएँ तो बेहतर रहे क्योंकि जिस दिन सभी में खासतौर पर बेटों में संस्कार आ गये उस दिन स्वयं ही धरती से दुष्कर्मी समाप्त हो जाएँंगे और ऐसा करने के लिये आरम्भ से ही परिवारों को अपनी पूरी जिम्मेदारी निभानी होगी। तस्वीर बदलनी है तो पुनः रंग भरने ही होंगे। यदि प्राचीन भारत की सभ्यता सभ्य थी तो प्राचीन काल की रीतियाँ तो अपनानी ही चाहिए। कुरीतियों को तो हम पहले ही काफी हद तक समाप्त कर चुके हैं। आइए हम सभी ’शक्ति’ को संस्कार व परिवार बनाए रखने की शक्ति दें। तभी मिशन पूरा हो पाएगा।

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Kalpana Rajauriya is an educator in India. All views expressed are personal.

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